” शिक्षक “
जिनके किरदार से आती हो सदाकत की महक
स्कूलों में पढ़ाने के लिए शिक्षकों की बहाली तो की गई है, लेकिन उनका काम देखकर आप हैरान रह जाएंगे. यदि आप वास्तव में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं, तो आपको शिक्षकों से बात करनी होगी और उन्हें सभी गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त करना होगा, चाहे वह एमडीएम हो या भवन रखरखाव आदि
मो0 रफी
7091937560
एक शिक्षक का दर्जा (स्थान) माता-पिता से भी ऊंचा होता है। शिक्षक समाज में वह व्यक्ति होता है जो विश्वसनीय, सम्माननीय और अनुकरणीय होता है, किसी शायर ने क्या खूब कहा है
जिनके किरदार से आती हो सदाकत की महक
उनकी तदरीस से पत्थर भी पिघल सकते हैं
(सदाकत – सच्चाई, तदरीस – शिक्षा)
हाँ! शिक्षक उस कुम्हार की तरह होता है जो मिट्टी को सुंदर आकार देता है। साथ ही शिक्षक विद्यार्थियों का मित्र, मार्गदर्शक और नेतृत्वकर्ता भी होता है। शायर के मुताबिक (अनुसार)
रहबर भी ये हमदम भी ये गमखार हमारे
उस्ताद ये कौमों के हैं मेअमार हमारे
(रहबर – मार्गदर्शक, गमखार – गम, दुख का साथी, कौम – राष्ट्र, मेअमार- निर्माता)
शायर ने ठीक ही कहा है कि शिक्षक नेतृत्वकर्ता और साथी होने के साथ-साथ हमारे दुःख का साथी भी होता है। इसीलिए शिक्षक “राष्ट्र निर्माता” कहलाता है। भारत में गुरुकल और शिष्य की भी एक महान परंपरा रही है। इतिहास गवाह है कि जिन लोगों ने चाणक्य जैसे गुरु की कद्र (सम्मान ) नहीं की, उनका विनाश हुआ। शिक्षक को समाज में सम्मान तो मिलता था, लेकिन अब सम्मान पैसे से मिलता है। धन के बिना ईमानदारी, शालीनता और अच्छे कर्म निरर्थक हैं। हाँ! यह भी सच है कि हर किसी को सब कुछ नहीं मिलता जैसा कि एक शायर ने खूब कहा है
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता
बिहार का शिक्षा विभाग गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल करने के लिए प्रत्येक दिन नया नया आदेश जारी कर रही है. आदेश को धरातल पर उतारने का काम शिक्षकों द्वारा ही संभव है, लेकिन विभाग द्वारा शिक्षकों को निराशा ही हाथ लग रही है. यूं तो सब कुछ ठीक ही लगता है, लेकिन सच्चाई की समीक्षा की जा सकती है। शिक्षा में गुणवत्ता की बात हो तो शिक्षक उसे कैसे मना कर सकते हैं, लेकिन बदले में उसे क्या मिल रहा है, यह बड़ा सवाल है। शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव श्री के के पाठक का खौफ विभाग में ऊपर से लेकर नीचे तक महसूस किया जा रहा है, परंतु उनके कार्य शैली के कारण समाज में शिक्षकों का अपमान हो रहा है। सार्वजनिक स्थानों पर जहां भी जाता हूं, एक ही आवाज सुनाई देती है कि ” के.के. पाठक ने मास्टर सब का हाल खराब कर दिया है, ” ये बातें वे मजा लेते हुए करते हैं. शिक्षकों का अपमान न केवल शिक्षकों के लिए बल्कि देश के लिए भी घातक है. मैं पहले ही बता चुका हूं कि बच्चों के लिए माता-पिता से भी ज्यादा मूल्यवान और आदर्श शिक्षक होते हैं, इसलिए जब उनका सम्मान खत्म हो जाएगा तो उन बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ेगा जो उनके छात्र हैं. इसलिए बिहार में शिक्षा के क्षेत्र में जो कुछ भी हो रहा है वह निंदनीय है. हम कहते-सुनते रहे हैं कि एकतरफा संवाद अव्यवहारिक और हानिकारक है. इसलिए शिक्षा देने के दौरान इस पद्धति में बदलाव आया और एक ऐसी कक्षा की अवधारणा आई जिसमें शिक्षकों के साथ-साथ बच्चों की भी भागीदारी सुनिश्चित की गई. लेकिन शिक्षा विभाग में क्या चल रहा है? एकतरफा संवाद, सरकार अपने स्तर पर वही कर रही है, परिणाम स्पष्ट रूप से बेहतर नहीं होंगे। आपको बता दूं कि विभाग के हर पत्र पर अमल हो रहा है, अगर स्कूल में इंफ्रास्ट्रक्चर आदि ठीक नहीं है तो उसके लिए भी शिक्षकों से पूछा जाता है, आपने क्या किया? लेकिन अधिकारियों से यह नहीं पूछा जाता कि यदि शिक्षकों ने कोई शिकायत की, कोई सलाह दी या किसी प्रकार की सहायता चाही तो उस पर क्या कार्रवाई हुई? मैंने स्वयं उर्दू की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा विभाग, यहां तक कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, मुख्य सचिव श्री आमिर सुबहानी और शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव के के पाठक को बार-बार लिखा है, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? आपको जवाब देना चाहिए था कि आख़िरकार आपने मेरे पत्र को कैसे क्रियान्वित किया, अन्यथा यह एकतरफ़ा रवैया शिक्षा व्यवस्था में क्रांति का केवल हौवा बनकर रह जाएगा, ज़मीनी स्तर पर कुछ नहीं होगा.
मैं स्पष्ट रूप से कहता हूं कि यदि सरकार या शिक्षा विभाग वास्तव में बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए गंभीर है, तो उसे सीधे शिक्षकों, शिक्षक संगठनों सहित शिक्षा विशेषज्ञों से बात करनी चाहिए। सबसे अधिक शिक्षकों से बातचीत उपयोगी साबित होगी. कौमी असातिजह तंजीम बिहार के प्रतिनिधियों से भी उर्दू की शिक्षा हेतु परामर्श लेना चाहिए ताकि समस्याओं का समाधान आसानी से हो सके. ऐसा मैंने इसलिए कहा, क्योंकि आप किसी ऐसे व्यक्ति के बिना अपना काम नहीं कर सकते जिसे जमीनी स्तर पर काम करने का अनुभव हो, इसलिए उनके सलाह के बिना आप बदलाव नहीं ला सकते हैं या शैक्षिक क्रांति नहीं ला सकते हैं जिसकी हम सभी अपेक्षा करते हैं. एक तो सरकार का एकतरफा संवाद और दूसरा यह कि शिक्षकों की हालत बच्चों से भी बदतर कर दी गयी है. हर दिन नया आदेश, शिक्षक इससे घबराये हुए हैं. जिस तरह बच्चों को बहुत अधिक होमवर्क देना फायदेमंद नहीं है, उसी तरह शिक्षकों पर काम का अधिक बोझ डालना भी अच्छा नहीं है। इसके दो परिणाम होंगे या तो कोई काम नहीं होगा या फिर काम घटिया होगा। स्कूल प्रिंसिपल का मानसिक संतुलन बिगाड़ने का भी खेल हो रहा है, रोजाना वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग यानी वीसी द्वारा मीटिंग का क्या औचित्य है. हर दिन वही पुरानी बातें दोहराई जाती हैं, इसका आयोजन आवश्यकतानुसार होना चाहिए। अपने ही क्षेत्र के कम्प्लेक्स सेंटर में जाकर वीसी से जुड़ना दोहरी मार की तरह है। शिक्षक प्रतिदिन सुबह 7:30, 8:00 बजे स्कूल के लिए निकलते हैं और स्कूल के बाद 6:00 बजे तक वीसी में लगे रहना और फिर शाम को 8:00 बजे तक घर पहुंचना न केवल मानसिक संतुलन बिगाड़ देता है, बल्कि निरंतर ऐसा होता रहा तो आने वाले समय में वे बीमारियों के जाल में फंसकर समय से पहले ही दुनिया को अलविदा कहने को मजबूर होंगे। प्राथमिक विद्यालय गजपति, कुढ़नी मुजफ्फरपुर की प्रभारी प्रधान शिक्षिका बबिता कुमारी बताती हैं कि एक किलोमीटर पैदल चल कर वह स्कूल जाती हैं, दो किलोमीटर पैदल चल कर वीसी और वापसी में तीन किलोमीटर पैदल चल कर घर वापस जाती हैं तब अंधेरा हो चुका होता है। वह बताती हैं कि वह कई तरह के लोगों से ग्रसित हो गई हैं। शिक्षक तो शिक्षक होते हैं, मासूम बच्चों को भी नहीं बख्शा गया, शिक्षकों के बहाने उन पर भी हमला किया गया. स्कूलों में छुट्टियाँ शिक्षकों के साथ-साथ बच्चों की भी होती है, इसलिए शिक्षा विभाग ने छुट्टियाँ कम करके शिक्षकों के साथ-साथ बच्चों के भी मौलिक और धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला किया है, जो निंदनीय है। कौमी असातिजह तंजीम बिहार व अन्य संगठनों ने इसकी कड़ी निंदा की है और बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार से मांग की है कि वे स्वयं हस्तक्षेप करें, ताकि शिक्षकों और बच्चों की धार्मिक स्वतंत्रता को प्रभावित होने से बचाया जा सके. यदि छुट्टियां नहीं मिलेंगी तो बच्चे बचपन का स्वर्णिम पल खो देंगे और निराशा में उन्हें जीवन एक बोझ लगने लगेगी, जिसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। बच्चों की पढ़ाई बच्चों पर बोझ न बने, इसी उद्देश्य से बच्चों को विभिन्न मनोरंजक तरीकों से पढ़ाया जाता है। स्कूल की छुट्टियाँ भी बच्चों को शैक्षणिक बोझ आदि से दूर रखने का एक साधन है और धार्मिक छुट्टियाँ धार्मिक मान्यताओं का प्रतीक हैं, जिनका सम्मान किया जाना चाहिए। दशहरे के अवसर पर, वे अपने बच्चों को कोलकाता जैसे शहरों में मेला घुमाने ले जाते हैं। कौमी असातिजह तंजीम बिहार के अनुसार पूर्व की अवकाश तालिका इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी, जिसे रद्द करना अनुचित है, इसलिए कौमी असातिजह तंजीम बिहार ने पूर्व की अवकाश तालिका को पुनः लागू करने की मांग की है.
स्कूलों में पढ़ाने के लिए शिक्षकों की बहाली की गई है, लेकिन अगर आप उनके काम पर नजर डालेंगे तो दंग रह जाएंगे. विद्यालय में शैक्षणिक व्यवस्था को दुरुस्त करने के साथ, एमडीएम बनाने, विद्यालय भवन का रंग-रोगन कराने, कबाड़ व कचरा एकत्रित कर बेचने, बच्चों का साप्ताहिक व मासिक टेस्ट लेने, मेधा सॉफ्ट में बच्चों का प्रवेश, शाला सिद्धि में प्रवेश, इंस्पायर अवार्ड प्रवेश व विभिन्न रिपोर्टों की तैयारी, चुनाव, जनगणना, बीएलओ की जिम्मेदारी, मैट्रिक, इंटर एवं अन्य सभी परीक्षाओं को सफलतापूर्वक आयोजित कराना, शिक्षा समिति, शिक्षक अभिभावक गोष्ठी का आयोजन आदि कराया जाता है इसके बावजूद अनावश्यक मोबाइल कॉल और विभाग से पत्रों का दबाव अलग. स्कूल प्रधानाध्यापक और शिक्षक साथ मिलकर समस्या का समाधान करते हैं. ये सभी कार्य काफी जटिल हैं, आज भी ऐसे कई शिक्षक हैं जिन्हें मोबाइल और कंप्यूटर की थोड़ी भी समझ नहीं है, वे सभी कार्य दूसरों से पूछकर या उनसे सहायता लेकर करते हैं, वेंडर मेकिंग और पीएफएमएस के माध्यम से भुगतान करना कठिन है, अधिकांश प्रिंसिपल बिचौलियों या दलालों का शिकार हो जाते हैं. अब प्रतिदिन स्कूल की जांच या तो तालीमी मरकज, टोला सेवक या फिर किसी क्लर्क आदि द्वारा की जा रही है. स्कूल के प्रिंसिपल ने ही तालीमी मरकज और टोला सेवक की बहाली की है और वही उनके स्कूल की जांच कर रहे हैं. क्लर्क प्रिंसिपल के समकक्ष नहीं होते हैं, लेकिन वे स्कूलों का निरीक्षण भी करते हैं. सुधार की प्रक्रिया में शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव श्री के के पाठक सभी सिद्धांतों को पीछे, बालाए ताक रखकर यह सब कर रहे हैं, तो ऐसे में क्या हम बेहतर परिणाम की उम्मीद कर सकते हैं? यह सच है कि शिक्षक या उनके संगठन पाठक के डर से आंदोलन नहीं कर रहे हैं, लेकिन अगर ऐसा बहुत दिनों तक चलता रहा तो शिक्षक विद्रोह करने को मजबूर हो जायेंगे, सड़कों पर उतर जायेंगे, फिर उनकी स्थिति 1942 के “करो या मरो” जैसी हो जाएगी, फिर उसे न तो नौकरी जाने का डर होगा और न ही किसी सजा का गम। सरकार अपनी जवाबदेही से भाग रही है, आज भी भवन और शिक्षकों की भारी कमी है, प्रधानाध्यापक को भी पढ़ाने के लिए कक्षा में जाना पड़ता है, अलग-अलग विषयों के शिक्षक आवश्यकता से कम हैं. अंत में, मैं शिक्षा विभाग और बिहार सरकार को एक सुझाव देना चाहूंगा, अगर आप वास्तव में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के बारे में चिंतित हैं, तो सबसे पहले आपको शिक्षकों को, चाहे वे प्रधानाध्यापक हों या कोई और, सभी शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्त करना चाहिए ताकि वे ठेकेदारों, मजदूरों, सफाई कर्मचारियों, बैंकों, दुकानों आदि के चक्र से सुरक्षित रहकर अपना शत् प्रतिशत समय शिक्षण कार्यों में लगा सकें, शिक्षकों की असल जिम्मेदारी यही है। जहां तक विभाग की मुस्तैदी का अंदाजा लगाना हो तो इस बात से लगाई जा सकती हैं कि पिछले दो वर्षों से भी अधिक दिनों से शिक्षकों को महीने की एक तारीख को वेतन देने की कवायद हो रही है जिसे अभी तक सफलता प्राप्त नहीं हुई है, अभी भी शिक्षकों का तीन – तीन, चार – चार महीने का वेतन लम्बित रहता है जिससे शिक्षक तंगी के कारण तनाव में रहते हैं, बढ़िया भोजन तो दूर बढ़िया इलाज भी उन्हें नसीब नहीं होता है, ऐसे में उनसे हम शिक्षण कार्यों के निष्पादन की क्या आशा कर सकते हैं। चिकित्सिकीय भत्ता तो शिक्षकों को मिलता है जो अप्रयाप्त है, अब उन्हें मेडिकल इंस्योरेंस का लाभ मिलना जरुरी है. ०