बदायूं : हिंदुओं के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथ रामायण और महाभारत का फारसी अनुवाद भी है। यह कार्य बादशाह अकबर के हुक्म से उनके दरबार के खास विद्वान मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने 16वीं सदी में किया था। मुल्ला कादरी फारसी, अरबी और उर्दू भाषा के साथ संस्कृत के भी प्रकांड विद्वान थे। उनके नाम से मुल्ला अब्दुल कादिर एकेडमी भी यहां करीब 17 साल पहले स्थापित हुई। अब अकादमी के साथ बज्मे किरतासो कलम नामक अदबी संगठन ने दोनों किताबों की प्रतियां बदायूं लाने की कोशिश शुरू कर दी है।

बादशाह अकबर के दरबार में यूं तो एक से बढ़कर एक विद्वान थे, लेकिन उनमें मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी एक ऐसी शख्सियत रहे, जिनका अरबी फारसी के साथ ही संस्कृत पर भी गजब का अधिकार था। मुल्ला कादरी का जन्म भले ही राजस्थान में हुआ था, लेकिन बाद में तालीम के सिलसिले में वे बदायूं आए और यहीं के होकर रह गए। 1573 ई. में जमाल खां और हकीम एनुल मुतक इन्हें अकबर के दरबार में ले गए और इन्हें दरबारी विद्वानों में शामिल कर लिया गया। मुल्ला कादिर ने मुंतखिबुत तवारीख नाम से दो जिल्दों में किताब लिखी है, जो विद्वानों के बीच बहुचर्चित हुई। इसकी पहली जिल्द में ¨हदुस्तान के इतिहास पर रोशनी डाली गई है, जबकि दूसरे भाग में अकबर के दरबार के हालात का वर्णन है। इसी किताब में लिखा है कि अकबर संस्कृत नहीं जानते थे, इसलिए वे इच्छा के बावजूद रामायण और महाभारत नहीं पढ़ पा रहे थे। मुंतखिबुत तवारीख के पेज 269 पर लिखा है महाभारत ¨हदुस्तान की प्राचीन और बड़ी किताब है, जिसमें बहुत से किस्से, नसीहतें, मुल्क की तरक्की, अखलाको आदाब, ¨हदू मजहब और इबादतों की तफसील है। यह सभी बातें ¨हदुस्तान के प्राचीन राजाओं कौरवों और पांडवों की जंग पर बयान की गई हैं। इसी किताब में आगे जिक्र है कि अकबर बादशाह ने कहा कि ¨हदुओं के रामायण महाभारत जैसे खास ग्रंथ को विद्वानों ने संस्कृत में लिखा है।

इसका फारसी में अनुवाद कर अपने नाम से प्रकाशित कराया जाए। यह वाकेआत अब तक फारसी में बयान नहीं किए गए, इसलिए दिलचस्प और नए रहेंगे। अकबर ने खुद भी इस कार्य में समय देने का फैसला किया। मुल्ला कादिर लिखते हैं कि बादशाह ने मुझे बुलाकर कहा कि नकीब खां के साथ मिलकर इसका अनुवाद करें। कई महीनों की मेहनत के बाद वर्ष 1592 ई. महाभारत का फारसी अनुवाद पूरा हुआ और यह किताब ‘रज्म-नामा’ नाम से मशहूर हुई। मुल्ला कादरी ने यह भी लिखा है कि 1591 ई. मैंने रामायण का फारसी में अनुवाद मुकम्मल कर बादशाह को पेश किया। यह अनुवाद चार साल में पूरा हुआ। अनुवाद के आखिर में एक शेर लिखा-मा किस्सा नौ शतीम बा सुल्तान कि रसान्द, जान सोखता करदेम बा जानान कि रसान्द। (मुंतखिबुत तवारीख पेज-312)। यह शेर बादशाह को बहुत पसंद आया। यह इत्तफाक है कि बदायूं की इस अजीम शख्सियत के दोनों अनूदित ग्रंथ रामायण व रज्मनामा यहां मौजूद नहीं हैं।

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